आखिरी बार। 

​’क्या अब तुम्हें यहाँ आना अच्छा नहीं लगता?’ उसने अचानक ही पूछ लिया। 

‘ऐसा नहीं है’ मैंने जवाब दिया। जवाब इतना हल्का था कि कुछ देर हवा में तैरने में बाद वह वापिस एक सवाल बनकर उससे लिपट गया। 

‘मुझे चलना चाहिए’ आँखों में एक और सवाल लिए वह उठ खड़ी हुई। 

मैंने ‘ठीक है’ कहकर उस सवाल को आँखों में ही रोक दिया। फिर घर छोड़ने का पूछा, जिसे उसने हर बार की तरह नकार दिया।

सूरज ढल चुका था। नदी के उस छोड़ पर हल्की लालिमा अब भी मौजूद थी। साहिल की ओर झुके शीशम के पत्ते बेजान मालूम पड़ पर रहे थे। जैसे दिन-भर सरसराने के बाद थक-हार कर लंबी नींद सो गए हों। बीच-बीच में हवा जब कभी हिचकोले लेती तो वह सन्नाटे को चीरते हुए बोल उठते। 
हम पहली बार यहीं मिले थे। उसके बाद हर बार मुझे यही लगा जैसे यह अंतिम बार है। कितना अच्छा होता अगर हर बार पहली बार की तरह ही होता। इस तरह किसी भी रिश्ते की सीमा का अनुमान लगाना नामुमकिन हो जाता। कुछ दिनों बाद मुझे ऐसा लगा जैसे मैं बहुत अजीब होता जा रहा हूँ। और कहीं वह मेरे इस तरह अजीब होने को भांप न ले इसलिए मैंने उससे संवाद कम कर दिए थे। 

मेरे लिए बदलाव स्वाभाविक था। मैंने हमेशा से यही चाहा था। अकेलापन। सन्नाटा। बहता पानी। खामोश हवा। और मैं। उसका मेरी जिंदगी में आना मेरे बहुत कुछ के खिलाफ था। फिर धीरे-धीरे वह ‘बहुत कुछ’ मेरे खिलाफ होने लगे। उसके जाने के बाद सन्नाटा पहले जैसा नहीं लगता। अकेलेपन को कुछ यादें अनायास ही जकड़ लेतीं। और मैं मेरे भीतर खुद को ढूंढने की कोशिश मैं झटपटाने लगता। 
उसे मेरी परछाई बनाने का फैसला मुझ जितना ही गलत था। काश मैंने यह न सोचते हुए कि उस पर क्या बीतेगी अगर उस वक़्त इंकार कर दिया होता तो उसे मेरी ख़ामोशी से होने वाली तकलीफ से नहीं गुज़रना पड़ता। बेवजह किसी की जिंदगी का हिस्सा बनना शायद बहुत गलत है। पर शायद कुछ चीजों पर हमारा वश कभी नहीं होता। और हम ना चाहते हुए भी एक अंजान रिश्ते में बंध जाते हैं। 

अँधेरे ने थोड़ी बहुत बचे उजाले को भी अपने आगोश में ले लिया था। मैंने एक पत्थर उठाकर पानी में मौजूद अपनी परछाई को दे मारा। उससे निकलने वाली छोटी-छोटी लहरें मेरे पैरों से आकर लिपट गयीं। 

आज वह बहुत देर होने के बावजूद भी नहीं आयी। शायद कल वह “आखिरी बार” था। 

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